
नई दिल्ली: अमेरिका और यूरोपीय संघ (ईयू) के बीच व्यापार समझौते को ग्लोबाल बाजारों ने सकारात्मक रूप से लिया है। लेकिन, भारत पर इसके ‘साइड इफेक्ट’ दिखाई दिए हैं। यह समझौता वैश्विक व्यापार अनिश्चितता को कम कर सकता है। हाालंकि, भारत पर इसका प्रभाव उतना सीधा और सकारात्मक नहीं दिख रहा है। भारतीय रुपये और विदेशी पोर्टफोलियो निवेश (एफपीआई), क्रूड की कीमत और शेयर बाजारों की चाल से इसे समझा जा सकता है। यूरोपीय संघ (ईयू) और अमेरिका के बीच एक व्यापार समझौता हुआ है। इस समझौते के बाद अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमत मजबूत हुई है। भारतीय शेयर बाजारों में मायूसी दिखी है। रुपये पर दबाव देखने को मिला है। विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों (एफपीआई) की बिकवाली बढ़ गई है।
भारत पर प्रतिकूल असर के संकेत
डील के ऐलान के बाद रुपये पर दबाव देखने को मिला। इसके अवमूल्यन यानी गिरावट का जोखिम बढ़ गया है। अमेरिका-ईयू व्यापार समझौते के बाद ग्लोबल स्टॉक बढ़े। यूरो मजबूत हुआ। लेकिन, भारतीय मुद्रा अमेरिकी डॉलर के मुकाबले 86.48-86.51 की सीमा में थोड़ा ही बदला। इसमें थोड़ा गिरने का रुझान दिख रहा है। इसकी मुख्य वजह लगातार विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों (एफपीआई) की निकासी है। जुलाई में अब तक विदेशी निवेशकों ने भारतीय शेयरों में में लगभग 75 करोड़ डॉलर की शुद्ध बिक्री की है। इससे पिछले तीन महीनों के इनफ्लो का रुझान उलट गया है। 24 जुलाई को ही उन्होंने भारतीय शेयरों में 23.11 करोड़ डॉलर और बॉन्ड में 5.52 करोड़ डॉलर की शुद्ध बिक्री की। यह प्रत्यक्ष रूप से दर्शाता है कि वैश्विक व्यापार में स्थिरता आने के बावजूद विदेशी पूंजी भारत से बाहर निकल रही है। इससे रुपये पर दबाव पड़ रहा है।
बढ़ते तेल की कीमतें और आयात बिल पर असर
यूएस-ईयू व्यापार समझौते और चीन के साथ संभावित टैरिफ विराम की उम्मीद से तेल की कीमतें बढ़ी हैं। ब्रेंट क्रूड वायदा 0.4% बढ़कर 68.7 डॉलर प्रति बैरल हो गया। भारत कच्चे तेल (क्रूड) का बड़ा आयातक है। तेल की कीमतों में बढ़ोतरी सीधे तौर पर भारत के आयात बिल को बढ़ाएगी। इससे देश के व्यापार घाटे पर प्रतिकूल असर पड़ेगा। ऊंची तेल कीमतें महंगाई को भी बढ़ावा दे सकती हैं। इससे भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) पर ब्याज दरों को लेकर दबाव बढ़ सकता है।
ग्लोबल आर्थिक माहौल में भारत की स्थिति
अमेरिका-ईयू समझौता ग्लोबल व्यापार युद्ध के एक बड़े टकराव को टालता है। ग्लोबल आर्थिक गतिविधि के लिए जोखिम को कम करता है। हालांकि, यह बड़े आर्थिक ब्लॉकों के बीच द्विपक्षीय समझौतों के बढ़ते रुझान को भी दर्शाता है।
भारत भी जबकि अमेरिका के साथ एक खास समझौते की उम्मीद कर रहा है। लेकिन, यह देखना बाकी है कि ग्लोबल व्यापार सौदों में इतनी तेजी से बदलाव के बीच भारत अपनी स्थिति को कैसे मजबूत कर पाता है। अगर विदेशी निवेशक अमेरिका और ईयू जैसे ज्यादा ‘स्थिर’ और बड़े बाजारों की ओर रुख करते हैं तो भारत जैसे उभरते बाजारों से पूंजी का बाहर जाना जारी रह सकता है।
फेडरल रिजर्व की मॉनेटरी पॉलिसी का असर
इस हफ्ते फेडरल रिजर्व की मौद्रिक नीति बैठक भी फोकस में रहेगी। भले ही दरों में बदलाव अपेक्षित नहीं है। लेकिन, फेड के बयान और चेयर जेरोम पॉवेल की टिप्पणियों में ‘सुरों में बदलाव’ पर नजर रखी जाएगी। यह सितंबर में संभावित दर कटौती के संकेत दे सकती हैं। अगर अमेरिका में ब्याज दर कटौती की संभावनाएं बढ़ती हैं तो यह अमेरिकी बाजारों को विदेशी निवेशकों के लिए और अधिक आकर्षक बना सकता है। इससे भारत से पूंजी का बाहर जाना बना रह सकता है। बेशक, अमेरिका-यूरोप व्यापार समझौते ने ग्लोबल रिस्क सेंटिमेंट में सुधार किया है। लेकिन, शुरुआती संकेतों के अनुसार, यह भारत के लिए बहुत अनुकूल नहीं दिख रहा है।